वक्त के हाथ में , अब भी वही कबीरा है ।
चादर झीनी वही, घर अपना फूँक आते है ॥
राग जीवन का मै,जब भी समझना चाहा ।
दर्द में प्यार के, हर गीत उभर आते है ॥
मानवीय रिश्तों पर, मॅडराती ये कैसी साया ।
अपने लाशों को भी, पहचान से कतराते है ॥
घुल गया जहर ,इस कदर से हवाओं मे ।
अधजली लाशें ,शमशान छोड़ आते है ॥
मास्क पहने है ,बदन किट से ढ़के सारे |
फिर भी , मिलने से वे डर जाते है ॥
अस्पतालों का हाल है, मत पूछिये जनाब ।
सिर्फ कागज पे ही ,आक्सीजन भी भरे जाते है ॥
रक्त सम्बन्धों के, रिश्ते भी तार – तार हुये ।
लोग अनायास ही ,अब दूरियाँ बनाते है ॥
रूख़सती का ये, कैसा है सलिका तेरा ।
ये कोरोना है, बहाने से निकल जाते है ॥

© डॉ. कुमार विनोद


Dr. Kumar Vinod

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केन्द्रीय नाजिर - सिविल कोर्ट, बलिया