चेहरों पर उभरी, चिंता की रेखाएं
कहती हैं आदमी के संघर्ष की गाथाएं
रोटियों को पाने की ललक में
ठहर जाता है वक्त।
इज्जत के पानी और स्वाभिमान के आटे से गूँथी,
तनिक भी,
आँच बर्दाश्त नहीं करती ये रोटियाँ
लेकिन, आसानी से ठहर जाती हैं अपने ‘आब ‘में
आग में राग है तो रोटियाँ खिल जाती हैं
जीवन के संघर्ष में
पीठ और पेट के श्रम के निकष से
जब सत्य से सामना होता है
भूख का,
चिंगारी फेकने लगती है आँखें
तब कहीं रोटियाँ मिल पाती हैं

© डॉ. कुमार विनोद


Dr. Kumar Vinod

Dr. Kumar Vinod

केन्द्रीय नाजिर - सिविल कोर्ट, बलिया